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विष्णुगुप्त

भुजबल पर मान करते थे सब। बुद्धि का दम ना भरते थे जब। बंटते थे प्रांत और राज्यों में। सम विषम जटिल समाजों में। अविरल संघर्ष की नदिया थी। नाव पर स्वार्थ की बगिया थी। दिस विविध चली पतवारें थीं। पहुंची ना कूल किनारे थीं। जब देशप्रेम था टूट चुका। जब राजभोज था धर्म बना। भ्रष्टाचार पग पसारे था। राजा के पांव पख़ारे था। तब जली ज्योति एक क्रांति की। स्वदेश सुख और शांति की। मगध की धरती पर जन्मी। वह दिव्य आत्मा भारत की। चणक का सुत वह विष्णुगुप्त। बन गया भारत की पहचान। यवनों को जिसने ललकारा। कर दिया सुरक्षित सीमांत। पथिकों के लक्ष्य आश्वस्त किए। भटकों के मार्ग प्रशस्त किए। ब्राह्मणों को नव पहचान दिया। श्रमिकों को भी अभिमान दिया। राजाओं को था एकत्र किया। जन जन को था निर्भीक किया। मगध को भयमुक्त कराया था। चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाया था। था सहज द्विज वह, पर कुटिल महान। थी ज्योति अलख उसकी मुस्कान। विचारों से खड्ग को काटा। उसने जग को साहस बांटा। है रोम रोम ऋणी उसका आज। जिसने एक किए सब राज। वह चाणक्य ब्राह्मणों का मान बना। रा
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सुभाष की याद में.....

उन्नत दक्खिन एशिया की धरती है, जिसने सुभाष पाया तुमको। गदगद है स्वयं मां भारती भी, जिसने था गोद में खेलाया तुमको। थी अनुरागी वह माता तुम्हारी जिसने था सुभाष जाया तुमको। और बड़भागी हूं मैं जिसने आदर्श अपना पाया तुमको। हे वीर लाडले भारत के, भारत का जब तक नाम रहे, भारत के लोगों के मन में तब तक तेरा सम्मान रहे। दुनिया के चारों कोनों में गूंजे तेरा उज्ज्वल इतिहास। था कोई नरसिंह ऐसा भी जिसने जीता सबका विश्वास। खिल उठे सभी का रोम रोम, आंखें चमके ज्यों प्रखर सोम। जब नाम लिया जाए "सुभाष", पाषाण हृदय बन जाए मोम। मन में सबके उन्माद उठे, एक स्नेह भरा संवाद उठे। आज़ाद हिन्द पुकारूं तो एकता का भयंकर नाद उठे। मां भारती के बंधन काटे। जग में मां को सम्मान दिया। मां अब भी रोती है छुप कर जो जग ने तुम्हारा अपमान किया। था जीवन मरण रहस्य ही तो कब जान सका तुमको था कौन। तुम इंकलाब चिल्लाते थे जब जब रहता था विश्व मौन। सारे धर्मों को एक किया और महिलाओं को भी बल दिया। आज़ाद हिन्द की सेना में हर एक बाशिंदा गर्व से जिया। पर हाल अभी बुरा देखो, हर युवा है भटक

आलोक...

अरुण आलोक की जयकार बोलो। जगत की ज्योतियों के द्वार खोलो। जगा है नींद से ये भोर जब से, सुनाई दे रहा है शोर तब से। कोलाहल है ये एक नई ज़िंदगी का। पशु पक्षी, विपिन का और पवन का। वही आलोक है, वो ही गगन है। वो ही स्वच्छंद सा उन्मुक्त मन है। वो ही उन्माद मन में अा रहा। वो ही एक भाव हिय पिघला रहा है। जो एक उम्मीद जग को बांधती है। निशा के अंत को शुभ मानती है। कि देखो फूल सब मुस्का रहे हैं। भंवर को प्रेम से पुचकारते हैं। गगन पंखों को उड़ते देखता है। रवि की ज्योति से दृग सेंकता है। धरा खिल जाती है रश्मि को पाकर। नया जीवन मिला ज्यों जाग कर। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/arunn-aalok-kii-jykaar-bolo-jgt-kii-jyotiyon-ke-dvaar-kholo-1pk2v

स्वावलोकन

घनघोर निराशा हो मन में, उत्साह न हो जब जीवन में। थक गया हो अंतस क्रंदन से, या स्वेद रुक गए स्यंदन से। उस क्षण रुक जाना गंभीर होकर। सोचो क्या थे, क्या हो गए तुम? ओ वीर कहां पर खो गए तुम! सब बंधु बांधव छूटे हों, अपनों से रिश्ते टूटे हों। निकले सब वादे झूठे हों, अश्रु छुप छुप कर फूटे हों। उस क्षण रुक जाना सहजता से, सोचना कहां कुछ चूक हुई। अपनों से दूर क्यों हो गए तुम? ऐ यार कहां पर खो गए तुम! प्रियसी भी तुमसे रूठ पड़े। सारी बातें जब छूट पड़ें। मन की आशाएं टूट पड़ें। मुख से रुदन भी फूट पड़ें। उस क्षण रुक जाना स्निग्ध होकर। सोचो क्यों प्रेम तजा तुमने? ओ प्रेमी कहां पर खो गए तुम! -रजत द्विवेदी

कर्ण- कृष्ण संवाद

मैत्री का मूल्य चुकाऊं कैसे? उस पर मैं पीठ फिराऊं कैसे? केशव, सुयोधन वह भ्राता है, जिससे जन्मों का नाता है। मुझ पर न दया जग करता था। केवल कटाक्ष ही करता था। तब एक सुयोधन ही तो था, जिसको मैं हृदय से प्रिय रहा। माना सहोदर पांडव मेरे। हैं अजय वीर बांधव मेरे। दुर्योधन पर है उनसे बढ़कर। सुख दुःख का मेरा है सहचर। मैं उसका त्याग करूं कैसे? सुख में मैं स्वास भरूं कैसे? दुर्योधन बस एक सहारा है। मेरे हिय का उजियारा है। वरना क्या बस तम ही है हिय में। है घृणा और क्रंदन हिय में। केशव, जो सुयोधन ना होता, तो कैसे फिर ये कर्ण जीता? अब रोम रोम बस उसका है। जीवन पर हक अब उसका है। मरना जीना अब सब उस संग। हैं एक हृदय, चाहे दो अंग। केशव, आप तो जग के स्वामी। घट घट में बसते अन्तर्यामी। जिस पक्ष भी आप हो जायेंगे, वो सदा सुयश ही पायेंगे। पांडवों को कौन हरा सकता? हरि जहां, वहां काल कब आ सकता? किन्तु सुयोधन अकेला है। उस संग ना महाभट मेला है। मैं ही उसका सेवक और मित्र। मैं ही वीरता का शुभ चित्र। मुझको ही देख वह जागा है। वरना मुझसा ही अभागा है। दुर्भाग्य भला और क्या होग

हुकूमत-ए-हिन्द

आर्जी हुकूमत-ए-हिन्द पर है जान न्योछावर सौ सौ बार। हिन्द की आज़ादी पर बलिदान जवानी सौ सौ बार। वीर सुभाष की सेना को अभिमान रहेगा सौ सौ बार। दिया है भारत माता को सम्मान समूचित सौ सौ बार। कितने बरसों से रहा है अरमान हमें ये सौ सौ बार। उमुक्त गगन में फहराए अपना तिरंगा सौ सौ बार। कितने कट गए शीश चढ़ाने मां के पग में सौ सौ बार। छोड़ दी वीर सुभाष ने अपनी पहचान यहां पर सौ सौ बार। अमर रहेगा प्रेम वतन से, मान बढ़ेगा सौ सौ बार। पूछेगा कोई शहदत अपना नाम रहेगा सौ सौ बार। टूटेगा ना कभी भी ये, अभिमान रहेगा सौ सौ बार। मरते दम तक मुख भारत नाम रहेगा सौ सौ बार। - रजत द्विवेदी

ध्येय क्यों छोड़ दिया.....

मन किस वन में भटक रहा? एकाग्रता अब कहां गई? जितना मैं ध्यान लगाता हूं, मिलता कोई भी उपाय नहीं। आशाएं बांध रखी हैं भले, पर किस विध सड़क तक जाऊं मैं? मन के इस वन में कहीं कभी, घुट घुटकर ना मर जाऊं मैं! क्या दोष विपदाओं पर मढ़ दूं? मैं आप स्वयं थक सा हूं गया। घिस रहा पुरातन शजरों पर, किस तरफ मिले कोई वृक्ष नया। सच है शायद ऐसी ही तो होती है इस मन की भटकन। जिस को पाना दुष्कर हो जाता, उसकी ही सोच में डूबते हैं हम। एक पोखर के स्वछंद नीर सी मन में होती है कोई अभिलाषा। जिसके तट पर नित नित बैठे हम बांधते हैं अगणित आशा। किन्तु समय से पूर्ण नहीं होती है जब वो अभिलाषा। पोखर का वो स्वच्छ पानी धीरे धीरे से है सड़ जाता। अतः मन में फिर भर जाती है हीनता, दुःख और घोर निराशा। मनुज टूटकर कांच की तरह, चारों ओर है बिखर जाता। इससे भला है एक वक्त तक किसी ध्येय पर ध्यान लगाना। अथक प्रयासों बाद हारे तो, उसे छोड़ आगे बढ़ जाना। मंज़िल पाने की आशा चाहे कितनी भी घोर भली। किन्तु कई पराजय बाद भी, खुद को छलना सही नहीं। मनोबल जब भी टूटता है कई बार हार जाने के बाद। उठता नही